वीर विनोद छाबड़ा
आज राजीव गांधी का जन्मदिन है. उन्होंने संजय गांधी के प्लेन हादसे से हुई मृत्यु के कारण बहुत हिचक के साथ राजनीति में कदम रखा. अमेठी सीट से उपचुनाव जीत कर सांसद बने. इंदिरा जी की हत्या के बाद 1984 में प्रधानमंत्री बने, महज 40 साल की उम्र में, भारत के आजतक के सबसे युवा प्रधानमंत्री. ताजपोशी के बाद सबसे पहले सिख विरोधी दंगे नियंत्रित किये. इस संदर्भ में उनके इस बयान की विपक्ष ने बहुत आलोचना की कि जब एक बड़ा वृक्ष गिरता है तो उसके आस-पास की धरती भी उखड़ती है.
उसी साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने चार सौ से ऊपर सीटें जीतीं. लेकिन इसमें राजीव का योगदान ज्यादा नहीं था बल्कि इंदिरा जी की हत्या के कारण उपजी सहानुभूति थी. आने वाले साल राजीव के लिए बहुत कठिन रहे. शाहबानो को लेकर अल्पवर्ग के प्रति सहानुभूति के कारण बहुसंख्यक के साथ साथ अल्पसंख्यक भी नाराज़ हो गए. श्रीलंका में तमिल मिलिटेंसी को कुचलने के लिए भेजी गयी ‘पीस कीपिंग’ फौज, पंजाब समस्या सुलझाने के लिये राजीव गाँधी-लोंगोवाल एकॉर्ड, मिजोरम समझौता आदि अच्छे काम किये. मालद्वीप में सेना भेज कर विद्रोह को कुचला. उस दौर के जानकार बताते थे, यदि ऐसा न होता तो पाकिस्तान का मालद्वीप पर कब्ज़ा निश्चित था. उन्होंने लोकप्रियता के नए आयाम छुए. लेकिन जलने वालों की फ़ौज बढ़ती गयी. अंततः अपनों ने ही बोफोर्स कांड में घेर लिया. वीपी सिंह, अरुण नेहरू आदि अनेक विश्वसनीय साथियों ने उनके साथ दगा की. उन्हें राजीव ने बाहर का रास्ता दिखाया. विपक्षी तो हमलावर थे ही. उन्हें तो बस मौके का इंतज़ार था.
इधर सच्ची बात कह कर ब्यूरोक्रेसी को नाराज़ कर डाला-
गरीब के लिए भेजे गए हर एक रूपए में उसको सिर्फ 15 पैसे ही मिलते हैं. अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस गया. लेकिन राजीव गांधी ने इन आँधियों के बीच अपने अकेले दम पर कुछ बहुत अच्छे काम भी किये जिसके लिए राष्ट्र उन्हें आज भी सलाम करता है. सबसे पहले उन्होंने आया-राम गया राम पर अंकुश लगाने के लिए ‘एंटी डिफेक्शन बिल’ पास कराया. अठारह की आयु वालों को वोटिंग राइट दिलवाया. सबसे महत्वपूर्ण तो इक्कीसवीं शताब्दी में छलांग लगाने की बात की. सूचना तंत्र की क्रांति का बिगुल बजाया. सैम पित्रोदा ने उनका अच्छा साथ दिया. गांव गांव में पीसीओ लग गए. सरकारी दफ्तरों में कंप्यूटर की शुरुआत की. बहुत विरोध हुआ इसका कि बेरोजगारी बढ़ेगी. लेकिन नतीजा देखिये कि कंप्यूटर आज सबसे अच्छा मित्र है.
1989 के चुनाव में बोफोर्स में भ्रष्टाचार के घने गहरे छाये थे. मीडिया पूरी तरह से राजीव गांधी के विरुद्ध था. लगता था कि कांग्रेस का नामो-निशान मिट जाएगा. लेकिन इसके बावज़ूद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को लोकसभा में सर्वाधिक 196 सीटें मिलीं. उन्हें सरकार बनाने का ऑफर मिला. विरोधियों को मिर्ची लग गयी. गला फाड़ चिल्लाने लगे. लेकिन राजीव ने बड़ी शालीनता से विपक्ष में बैठना स्वीकार किया. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. लेकिन हर चुनावी सभा में बोफोर्स घोटाले में संलिप्त जनों के नाम जेब में रखी पर्ची में लिखे होने की बात करने वाले वीपी सिंह पलट गए. कोई पर्ची नहीं निकली. जुमला निकला.
पहले वीपी सिंह और फिर चंद्रशेखर के नेतृत्व में बनीं सरकारें चल नहीं सकीं. जनता को राजीव गांधी शिद्दत से याद आये. तब तक राजीव भी राजनीती में दोस्त के भेष में छिपे दुश्मन को पहचानने का गुर सीख चुके थे. और लगभग तय था कि राजीव गांधी 1991 के चुनाव में एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे. मगर इससे पूर्व ही श्रीलंका में लिट्टों के प्रति नीति का विरोध करने वालों उनकी हत्या कर दी. जिन लोगों ने राजीव को बहुत निकट से देखा और जाना है, उनका कथन है कि राजीव गांधी जैसा शालीन बंदा दूसरा नहीं देखा.
उन्होंने ही कहा था – मेरा भारत महान. अगर राजीव होते तो आज राजनीति का सीन फ़र्क होता.