वास्तव में इस समय मजदूरों की मजबूरी से हमदर्दी में। बड़े मौसमी नौटंकी बाज शामिल हो गये हैं हर स्तर पर और उनकी मजबूरियों को अपनी अपनी उपयोगिता की दृष्टि से भुनाने मे लगे हैं। सबके अपने अपने लक्ष्य हैं..समय बीतेगा और सब कुछ भुला दिया जायेगा। कोरोना का दौर तो इस बर्ष आया है,, मजदूरों का हर प्रकार से शोषण कोई नयी बात नहीं है.. मजदूर ने हमेशा मजबूरियां सहन की है..फैक्ट्रियों में श्रम कानूनों को धता बताकर मनचाहे घंटे तक काम लेना,उचित मजदूरी न मिलना,, जोखिम भरी जगहों पर सैफ्टी इक्यूपमेंट के अभाव में स्वास्थ्य, शरीर, जान गंवाना,,ये सब चलता रहता है। और अक्सर सुनने मे आता रहता है कि किसी दुर्घटना आदि मे जान जाने पर..परिवार को मुआवजा आदि के बजाय ,यह दिखा दिया जाता है कि वो वहां काम करता ही नहीं था,,,कारखानों फैक्ट्रियों मे हुए आर्थिक नुकसान की गाज़ फौरन श्रमिकों की वेतन कटौतियों व छंटनी बन कर गिरती है,, बड़ी संख्या में उन्हें स्थायित्व का दर्जा निश्चित समय बीत जाने के बाद भी नहीं मिलता है। जिससे श्रमिक हितों से संबंधित तमाम नीतियां उन पर लागू नहीं होती हैं,, जब वास्तविक मजदूरों की आत्मकथा उनके मुंह से सुनता हूं तो बड़ा मन विचलित हो जाता है और कभी कभी लगता है कि देश की आजादी के मायने क्या है। क्या यही कि मनुष्य मनुष्य पर शोषण अत्याचार करता है। विभीषिकाएं आती रहती हैं, तूफान,बाढ़,सुनामी ,भूकंप ,सूखा,महामारी आदि,,दर्द बहुतों के पास है ,देश के बंटवारे के दंश का दर्द, काश्मीर के विस्थापितों का दर्द, बांग्लादेशी चकमा शर्णार्थियों का दर्द,, जो अपना घरबार,, सब कुछ छोड़कर आये। कोरोना महामारी मे मजबूरी वश घोषित लाकडाउन के बाद,,मजदूरों को यथास्थिति उनके कार्य करने वाले स्थानों से विवशता वश हटना बहुत कष्टकारी और जोखिम भरा है,,
ये हमारी संकीर्ण शहरी विचारधारा का परिणाम है,,जहां काम नहीं तो रोटी नहीं,, जैसा सिद्धांत पनपाया गया है।जिन श्रमिकों ने शहरों को अपने खून पसीने से सींचा,, वह शहर उनको आपतकाल मे रोटी न खिला सका,,
आज शहरों से टूटा हुआ मन तन लेकर लौट रहे लाखों मजदूरों की आंखों में गांव से पालनहारी छांव की उम्मीद है। और यह उम्मीद सफल भी होगी।

धर्मेंद्र कुमार त्रिवेदी

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